Saturday 17 October 2015

कविता: जिज्ञासा

 जीवन में होने वाली गलतियों , उनसे उत्पन्न टूटन और उसकी सहज स्वीकारोक्ति को समर्पित कविता ....


चटकन के पड़े निशां,
छितराया मन का फलक
एक टूटन बिखरी पड़ी ,
अन्दर बहुत गहरे तलक ...

समझ सका जो न खुद को ,
खोज अर्थ भी न पाया  ,
मन के अन्दर जो झाँका ,
कुछ रौशनी कुछ अँधेरा पाया ...

उस अंधियारे रस्ते पर ,
चलने को बड़े कदम मेरे ,
वो पतन नहीं था मेरा ,
बस जिज्ञासा के थे घेरे ...

उस  जिज्ञासा के पूरन में ,
कुछ कलंक मेरे आये माथे ,
कुछ लगे दोष नए ,
कुछ मेरे असल थे साये ...

सही गलत को क्या चुनना ,
जब जिज्ञासा खुद हो रस्ता,
सही तो हे बस वही ,
जो हे पूर्व से ही स्थापित ,
जिज्ञासा के शमन में ,
सदा कलंक हे बसता ....

उस टूटन
उस चटकन ने ,
बहुत दूर मुझे ले आया हे
भटकाव मेरा कम हुआ या ज्यादा ,
कुछ समझ नहीं मन  पाया हे ....

बस हे तो एक जिज्ञासा ,
जिज्ञासाओं के सच को जानने की,
खुद के भटकाव को ,
नए सिरे तक ले जाने की ,
क्यूंकि ये भटकाव मेरा सच हे ,
ये जिज्ञासा मेरा जीवन हक़ हे ...

मैं बहूँगा समय कि धार  में पुनः ,
एक नयी जिज्ञासा फिर आएगी ,
टूटन का नया दौर चलेगा ,
जो पुनः गहरे तक बिखर जाएगी ....