Tuesday 29 December 2015

तमाशा का साहित्य

तमाशा : बड़ी अलग सी मगर मानो साहित्यिक किताब जैसी फ़िल्म हे । ताज्जुब होता हे कि घोर व्यावसायिकता वाले माहौल में कोई हे जो लीड एक्टर्स के साथ पैरलल सिनेमा में नए प्रयोग कर रहा हे । इम्तियाज़ को सल्यूट हे उनके साहस के लिए ।
    वास्तव में ये साहस वही साहस हे जो किरदार वेद अंत में प्राप्त करता हे । कई बार लगता हे इम्तियाज़ खुद का भोगा हुआ यथार्थ दिखाते हे और इसी वजह से उनकी फिल्में साहित्यिक गहराई वाली प्रतीत होती हे ।
     ये फ़िल्म मिक्स रिव्यु लेके आई थी ।।कुछ को बहुत अच्छी तो कुछ को बेहद ख़राब लगी । फ़िल्म देखकर ये समझ भी आ गया क़ि ऐसा क्यूं रहा । वे लोग जो खुद दो ज़िन्दगी जी रहे हे और जिनके सपने आम लोगो से अलग रहे होंगे उन्हें जरूर ये अपनी कहानी लगी होगी , वेद का वह चिड़चिड़ापन उन्हें खुद का चिडचिडापन लगा होगा ।
  फ़िल्म के नजरिये से इस फ़िल्म पर कुछ कहना बेकार लगता हे क्योंकि ये आम फ़िल्म हे ही नहीं ये तो वह कहानी हे जो उस दर्शन की व्याख्या करती हे जिसमे अक्सर ही हम अपने बचपन को मारकर खुद को लगातार बड़े हो जाने का अहसास कराते हे और इस सब में हम खुद से कही दूर बहुत दूर निकल जाते हे । और एक दिन हम वह रहते ही नहीं जो क़ि हमें होना चाहिए था ।
   ये समस्या वैसे हर किसी के साथ हे ,बस अंतर कम या ज्यादा का हे ।।और इसी कारन ये फ़िल्म भी कम या ज्यादा अच्छी लगती हे ।।
  मगर इम्तियाज़ तुम वाकई इस बाजार की दुनिया में सच्ची संवेदना से भरे कलाकार हो जो खुद को लगातार ख़ोज रहा हे ।।।।