Tuesday 29 December 2015

तमाशा का साहित्य

तमाशा : बड़ी अलग सी मगर मानो साहित्यिक किताब जैसी फ़िल्म हे । ताज्जुब होता हे कि घोर व्यावसायिकता वाले माहौल में कोई हे जो लीड एक्टर्स के साथ पैरलल सिनेमा में नए प्रयोग कर रहा हे । इम्तियाज़ को सल्यूट हे उनके साहस के लिए ।
    वास्तव में ये साहस वही साहस हे जो किरदार वेद अंत में प्राप्त करता हे । कई बार लगता हे इम्तियाज़ खुद का भोगा हुआ यथार्थ दिखाते हे और इसी वजह से उनकी फिल्में साहित्यिक गहराई वाली प्रतीत होती हे ।
     ये फ़िल्म मिक्स रिव्यु लेके आई थी ।।कुछ को बहुत अच्छी तो कुछ को बेहद ख़राब लगी । फ़िल्म देखकर ये समझ भी आ गया क़ि ऐसा क्यूं रहा । वे लोग जो खुद दो ज़िन्दगी जी रहे हे और जिनके सपने आम लोगो से अलग रहे होंगे उन्हें जरूर ये अपनी कहानी लगी होगी , वेद का वह चिड़चिड़ापन उन्हें खुद का चिडचिडापन लगा होगा ।
  फ़िल्म के नजरिये से इस फ़िल्म पर कुछ कहना बेकार लगता हे क्योंकि ये आम फ़िल्म हे ही नहीं ये तो वह कहानी हे जो उस दर्शन की व्याख्या करती हे जिसमे अक्सर ही हम अपने बचपन को मारकर खुद को लगातार बड़े हो जाने का अहसास कराते हे और इस सब में हम खुद से कही दूर बहुत दूर निकल जाते हे । और एक दिन हम वह रहते ही नहीं जो क़ि हमें होना चाहिए था ।
   ये समस्या वैसे हर किसी के साथ हे ,बस अंतर कम या ज्यादा का हे ।।और इसी कारन ये फ़िल्म भी कम या ज्यादा अच्छी लगती हे ।।
  मगर इम्तियाज़ तुम वाकई इस बाजार की दुनिया में सच्ची संवेदना से भरे कलाकार हो जो खुद को लगातार ख़ोज रहा हे ।।।।

Saturday 28 November 2015

कटाक्ष :कालिदास तुम्हारी हत्या जरुरी थी

कटाक्ष :कालिदास तुम्हारी हत्या जरुरी थी 

आज के समय में जब हर जगह सहिष्णुता और असहिष्णुता की एक बहस सी छिड़ी हे तब मुझे लगता हे कि इसका जबाब इतिहास में ढूँढना बहुत जरुरी हे .. सबसे बड़ा सवाल तो ये हे कि आज के लेखकों और बुद्धिजीवियों में इतनी हिम्मत ही कहाँ से आ गयी हे कि वो बिना सोचे समझे हमारी संस्कृति और धर्म का उपहास उड़ा देते हे ...कलबुर्गी जैसे नास्तिकों और पेरूमल मुरगन जैसे लोगों को कम से कम इतनी समझ तो होनी ही चाहिए कि ये भारत हे जहाँ संस्कृति पर सवाल नहीं झेला जायेगा ...मगर तब भी इतनी हिमाकत ? आखिर क्यूँ और कैसे ?

बहुत सोचा तब एक ही जबाब आया कि शायद प्राचीन लोग हद से ज्यादा सहनशील थे , कुछ ज्यादा ही ...वरना कालिदास आखिर जिंदा कैसे रह गए ? जिस कालिदास ने 'कुमार संभव' जैसा बेहद अश्लील साहित्य लिखा और वह भी भगवान् शिव को विषय बनाते हुए ,उस कालिदास को उस समय के लोगो ने न तो जान से मारा और उल्टा उसे महानता के शिखर पर बैठा दिया ...हालाँकि सुना हे  इसके लिए उनकी तब भी  आलोचना कि गयी थी मगर तब भी मात्र आलोचना से क्या होता ...उल्टा उन्हें उनकी अन्य रचनाओ के कारन महान लेखक साबित कर दिया गया ...कमाल तो ये हे कि ये बेहद अश्लील साहित्य कई यूनिवर्सिटी में पोस्ट ग्रेजुएशन में पढाया भी जाता हे ...मेरे हिसाब से आज के समय में इन नए लेखकों को देश में असहिष्णुता बढाने  से रोकने के लिए कालिदास तुम्हरी हत्या जरुरी थी ...

उस समय कि पीढ़ी की इस सहनशीलता ने आज के दौर में सहनशीलता के रक्षकों के सामने बड़े ही असहनशील प्रश्न खड़े कर दिए हे ...बे बेचारे जितना इन लेखकों को रोक रहे हे उतना ही कालिदास जैसे लेखको  की  घोषित महानता इनको प्रेरित करती हे कि वह हमारी पवित्र संस्कृति पर सवाल उठाये ...काश कि तुम्हे तब मार दिया होता तो ये सब आज इतने मुखर न हो पाते ..काश कि तुम आज ये सब लिखते तो तुम कालिदास नहीं कलबुर्गी बना दिए जाते ...सच में कालिदास तुम्हारी हत्या जरुरी थी ...

Sunday 22 November 2015

कविता :चोट

कविता : चोट 


अधिक नहीं बस याद यही ,
कुछ हे कचोटता मुझे ,
क्या हे ये भी शायद जानता ,
मगर बताना भी बस ,
बढ़ाना होगा उस कचोट को ,
या शायद बह जाना होगा उसका .....


मगर सच हे कि ,
इस घोर असमंजस में ,
मैं खुद को तडपाना ,
सजा देना चाहता हू ...

कि शायद किसी तरह मेरी वह कचोट ,
मेरे मन पर बना दे ,
एक ऐसा निशां चोट का ,
कि याद रहे मुझे सदा ,
क्या था जो था कचोटता ,
क्यों था जो था कचोटता ....

नहीं मैं कोई  दार्शनिक नहीं ,
हु तो बस साधारण इंसान ,
जिसने भी की हे कई गलतियाँ,
सबकी तरह ,
जी रहा जैसे कुछ किया ही नहीं ....

इन गलतियों और चोटों का हिसाब नहीं रखा मैंने ,
मगर जब भी दी किसी और को चोट मैंने ,
तब बना लिया दिल पर खुद के
एक गहरा निशान चोट का ....

Saturday 17 October 2015

कविता: जिज्ञासा

 जीवन में होने वाली गलतियों , उनसे उत्पन्न टूटन और उसकी सहज स्वीकारोक्ति को समर्पित कविता ....


चटकन के पड़े निशां,
छितराया मन का फलक
एक टूटन बिखरी पड़ी ,
अन्दर बहुत गहरे तलक ...

समझ सका जो न खुद को ,
खोज अर्थ भी न पाया  ,
मन के अन्दर जो झाँका ,
कुछ रौशनी कुछ अँधेरा पाया ...

उस अंधियारे रस्ते पर ,
चलने को बड़े कदम मेरे ,
वो पतन नहीं था मेरा ,
बस जिज्ञासा के थे घेरे ...

उस  जिज्ञासा के पूरन में ,
कुछ कलंक मेरे आये माथे ,
कुछ लगे दोष नए ,
कुछ मेरे असल थे साये ...

सही गलत को क्या चुनना ,
जब जिज्ञासा खुद हो रस्ता,
सही तो हे बस वही ,
जो हे पूर्व से ही स्थापित ,
जिज्ञासा के शमन में ,
सदा कलंक हे बसता ....

उस टूटन
उस चटकन ने ,
बहुत दूर मुझे ले आया हे
भटकाव मेरा कम हुआ या ज्यादा ,
कुछ समझ नहीं मन  पाया हे ....

बस हे तो एक जिज्ञासा ,
जिज्ञासाओं के सच को जानने की,
खुद के भटकाव को ,
नए सिरे तक ले जाने की ,
क्यूंकि ये भटकाव मेरा सच हे ,
ये जिज्ञासा मेरा जीवन हक़ हे ...

मैं बहूँगा समय कि धार  में पुनः ,
एक नयी जिज्ञासा फिर आएगी ,
टूटन का नया दौर चलेगा ,
जो पुनः गहरे तक बिखर जाएगी ....

Sunday 12 July 2015

कहानी : समानता

मैं तुम पर अपनी इच्छाये नहीं थोपना चाहता मगर मैं ये भी नहीं चाहता कि तुम अब उस जगह काम करो "

"मगर मैं वहां काम करके बहुत खुश हूँ और वहां मेरी तरक्की के अवसर भी बहुत हे "

"वो ठीक हे मगर अब देखो तुम ये कॉर्पोरेट की जॉब छोड़ के किसी स्कूल में टीचर बन जाओ , उससे घर के लिए टाइम भी दे पाओगी "

"लेकिन टीचिंग ....."

"देखो मैं बस कह रहा हूँ ..."

"मगर मुझे मेरा काम बहुत पसंद हे ...."

"अरे काम तो सारे ही अच्छे होते हे , फिर औरतों के लिए तो टीचिंग बहुत ही अच्छा आप्शन हेना ..."

"होगा शायद ...मगर मुझे अपनी मार्केटिंग की जॉब में ही चेलेंज महसूस होता हे "

"यार क्या अब तुम मेरी इतनी भी नहीं मान सकती हो ..."

वो चुप थी अब ...सोच रही थी कि क्या इसे ही न थोपना कहते हे ....हाँ वो वाकई थोप नहीं रहा था बस घुमा फिरा के अपनी बात मनवाना चाहता था , या फिर इसे ही तो थोपना कहते हे ...

Wednesday 8 July 2015

कुछ हो तुम

दर्द हो सीने में
गर छुपाना आये तो कुछ हो तुम,
आशू हो आँखों में,
गर उन्हें पीना जानो तो कुछ हो तुम....
यू रोना जो रोओगे
तो साथ तक छोड़ देगा जहाँ
जो पीठ में हो खंजर
गर तब भी मुश्काओ तो कुछ हो तुम
सच बस इतना हे
सलाम जीने वालों को करते हे लोग
सांस न भी हो हलक में
गर तब भी हो बुदबुदाहट तो कुछ हो तुम ...

Sunday 5 July 2015

कहानी :अनुभव

कहानी : अनुभव

वो अलीगढ के दिन थे मेरे .. दूसरा साल था शायद कॉलेज का ..मगर वो दिन कुछ खास था . उस दिन अलीगढ में हमारी यूनिवर्सिटी का मेडिकल एंट्रेंस होने वाला था , जिस कारन उस दिन अलीगढ जंक्सन पर बहुत भीड़ रहती थी और उस भीड़ में होती थी खुबसूरत लड़कियां ...

तो आम लड़कों कि तरह हम भी उस खूबसूरती का दीदार करने उस रात स्टेशन गए थे ...मैं और मेरे तीन दोस्त (नाम लिख सकता हु मगर जरुरी नहीं समझता)..स्टेशन पर काफी देर टहलने और आँखों से खूबसूरती को निहार  लेने के बाद हम कमरे कि तरफ लौटने लगे थे ...और लौटते हुए वही स्टेशन के नुक्कड़ पर हलवाई  वाला दूध पिने के लिए रुके ...अभी रुके ही थे कि एक बुजुर्ग व्यक्ति हमारे पास आया और हमसे उसने पांच रुपये मांगे ताकि वह भी दूध पी सके ....जब हमने पूछा तो उसने बताया कि वह जौनपुर से आया था और यहाँ किसी ने उसके पैसे मार लिए हे जिस कारन वह सुबह से ऐसे ही घूम रहा हे और उसने कुछ खाया भी नही हे ....मेरे एक दोस्त ने उसे न सिर्फ दूध के पैसे दिए बल्कि हम सबसे कहा कि क्यूँ न इसे जौनपुर कि टिकेट  दिला दे ताकि ये घर जा  सके ...हम सबको ही ये विचार बहुत सही लगा था ...

खैर ये सोच कर हमने उसे लिंक एक्प्रेस का टिकेट दिला दिया था और उनसे कहा कि जब ट्रेन आये तो उसमे चढ़ जाना ...मगर एक नयी समस्या सामने आ गयी क्यूंकि वो बुजुर्ग पढना लिखना नहीं जानते थे और ऐसे में डर था कि वह कहीं गलत ट्रेन में न चढ़ जाएँ ...तब हम सबने सोचा कि क्यूंकि ट्रेन में अभी टाइम था तो क्यूँ न इन्हें कमरे पर ही ले चलते हे और जब ट्रेन का टाइम होगा तो खुद ही इन्हें बिठा भी देंगे ...

उस दिन उनकी मदद करने का अहसास हम चारों  को मन ही मन बहुत प्रसन्नता दे रहा था और इसी सोच में मेरे एक दोस्त ने कमरे पर आने के बाद अपना खाना तक उनको दे दिया ताकि वह रात के लम्बे सफ़र में भूखे न रहे ...आज हम चारों बहुत भावुक हुए जा रहे थे ...खैर तीन घंटे बाद रात के एक बजे ट्रेन का टाइम हो गया था और उन्हें स्टेशन छोड़ने के लिए मेरे दो दोस्त गए ...मैं आराम से आज तसल्ली से सो गया था ...एक भाव था कि कुछ अच्छा किया हे ...एक दिली तसल्ली थी ...

अभी आधा घंटा ही हुआ था कि मेरे दोस्त ने मुझे झंझोड़ के उठाया ..."अबे साले बाबा ठग था " ...ये सुनते ही मैं सन्न रहा गया था ...उसने बताया कि जब वो उसे छोड़ने गए तो ट्रेन और लेट हो गयी थी जिस कारन उन्होंने उसे वही एक पर्ची पर ट्रेन का नाम और प्लेटफार्म न. देकर छोड़ दिया था ...वो दोनों  वापिस आ ही रहे थे कि एक बेहद सुन्दर लड़की के कारन वो थोडा सा रुक गए थे ...तभी उन्होंने देखा कि वह बाबा टिकेट वापिसी काउंटर से टिकेट वापिस करके पैसे ले रहा था ....ये देखना था कि उन्होंने उसे पकड़ लिया ...वह घबरा कर उनके पैर पड़  गया ...उन्होंने पैसे वापिस छीन के उसे छोड़ तो दिया था  मगर उस घटना के साथ ही छुट गया था हम चारो का मदद करने का विश्वास..

इस घटना में हम चारो बेब्कुफ़ तो कहे जा सकते हे मगर सच में वह बेबकूफी हमारी इंसानियत से उपजी थी जिसको चकनाचूर करने में उस बूढ़े ने जरा भी हमदर्दी न दिखाई ...खैर ये एक कडुवा मगर सिखाने वाला अनुभव था हमारा...

Thursday 2 July 2015

एक बेचलर की कथा : भाग 4

एक बैचलर की कथा : भाग ४

डिस्क्लेमर :- यह भाग बैचलर जीवन के अभिन्न हिस्से से सम्बंधित हे , अतः व्यंग्य से ज्यादा यदि श्रद्धा का भाव प्रदर्शित हो तो लेखक वाकई जिम्मेदार माना जाये |

बड़ी ही उतपाती परन्तु विशेष सहयोगी प्रजाति एक बैचलर के जीवन से जोंक की तरह चिपकी रहती हे | नहीं समझे क्या , तब जरा अपना मैरिटल स्टेटस चैक जरूर करे क्यूंकि या तो आप पीड़ित शादीशुदा व्यक्ति हे या फिर बैचलर की खाल में वान्ना बी (WANNA BE )शादीशुदा | उम्मीद हे कि विशुद्धः बैचलर समझ गया हे कि मैं मित्र समूह कि बात कर रहा हू| एक बैचलर का अपने मित्रो के बिना जीवन यापन मुश्किल ही नहीं नामुमकिन ही हे | पैसे उधारी या किताब उधारी , पार्टी मानना या लड़की पटवाना , किसी कि पिटाई या दुसरो कि बुराई , हर तरह के काम में जो आये काम , दोस्त होता हे उसी का नाम ( घटिया पद्यात्मक गद्या - तुकबंदी वाला , लेखक कि क्षमता के अनुसार ) |

आज के कलियुगी समाज के होशियार रिश्तेदार जब आपका फ़ोन आता देख ही, आपकी आर्थिक सहायता की मांग से पूर्व ही, अपने दुखड़े सुनाने शुरू कर देते हे तब ये मित्र स्वयं वास्तविक समस्याओं में जीते हुए भी ( याद रहे वह महीने के अंतिम सप्ताह में सिगरेट पीना बंद कर चुका हे ) अपने कमरे में बिखरे कपड़ो में से दस दस के नोट इकठे करके आपकी सहायता की जिजीविषा दिखाता हे , वाकई ये दृश्य स्वयं सुदामा रूपी मित्र द्वारा सुदामा की ही सहायता जैसा होता हे |

वहीँ दूसरी और अगर बात युद्ध क्षेत्र में सहायता की हो तब यही मित्र महाभारत के कर्ण से भी बड़ा कर्ण बन जाता हे और बिना ये सोचे समझे की हम धर्म की लड़ाई लड़ रहे हे या अधर्म की , ये सदा हमारा ही साथ देता हे |वाकई द्वापर के कर्ण से बड़े कर्णो ने तो कलियुग में जन्म लिया हे ( जय कल्कि महाराज ) | वहीँ कई ऐसे परम दीन काया (WEAK BODY ) वाले मित्र जो सामान्यतः कृष्ण रूपी नीतिवाचक (प्लनिंग समझाने वाले ) की भूमिका में रहते हे , समय आने पर शस्त्र भी उठा लेते हे ( हालाँकि तब ये निर्ममता से पिट के ही आते हे और जिस मित्र के लिए गए थे उसे समस्त जहाँ की गालिया भी देते हे , मगर इससे उनके मित्र धर्म पर संदेह नहीं किया जा सकता ) |

लड़कियों के मामले में प्रारंभिक प्रतितवन्दिता के सहयोग में बदलने का ज्वलंत उदाहरण भी ये मित्र ही हैं  | प्रारम्भ में समस्त पैतरें अपना लेने पे जब वह जान जाता हे की लड़की उसके मित्र को ही भाव देती हे तब ये तुरंत उसको भाभी के रूप में स्वीकार कर लेता हे | और तब सेटिंग से लेकर मीटिंग तक हर जगह ये मित्र ही काम आते हे | यहाँ तक कि यदि आपका ब्रेकअप हुआ तो ये मित्र ही आपकी पूर्व प्रेमिका के भावनात्मक सहारा बनते हे ( कई बार  परिणामस्वरूप आपकी पूर्व प्रेमिका आपकी ही भाभी बन जाती हे )

वाकई इस कलियुगी जीवन में जहाँ हर रिश्ता कमजोर पड़ा हे वहीँ दोस्ती मित्रता आज भी सतयुगी पायदान पर हे ( ये पंक्ति लेखक ने जानबूझ के डाली हे ताकि उसके दार्शनिक ज्ञान कि अभिव्यक्ति हो सके ) 

Wednesday 24 June 2015

एक बेचलर की कथा : भाग 3

एक बेचलर की कथा : भाग 3

डिस्कलेमर - पिछले भाग में बेचलर की किचन में मैग्गी का बखान छूट जाने से इस भाग में मैग्गी से मेरा माफीनामा अर्ज हे

किसी ने सही कहा हे की बेचलर की किचन में अगर कुछ स्थायी हे तो वह मैग्गी हे मैग्गी हे । और तब भी मैं इसे भूल गया वाकई मेरी खता नाकबिले माफ़ी हे (हालानकी इसकी सजा कुछ बेचलर मुझे सार्वजनिक रुप से जालील करके दे चुके हे ) । अतः हे मैग्गी देवी मुझ तुच्छ से बेचलर को माफ़ करना क्योंकि तू ही मेरी वास्तविक पालानहार हे ।

ये एक ऐसा करिश्मा हे जो बना था शायद बच्चों के लिए मगर अपनी असीम सभवनओ के कारन बेचलर्स में ज्यादा प्रभाव जमा पाया । इसकी सबसे बड़ी खासियत इसका आसानी और तेजी से बन जाने ने ,लाखो कामचोर एवं आलसी बेचलर्स को एक नयी जीवनरेखा दे दी हे । वास्तव में ईश्वर से कमतर नहीं ये ऐसे लोगो के लिए (सोच रहा हु की कभी मेग्गी पर भावपूर्ण आरती अवश्य लिखू तभी बेचलर्स के साथ वास्तविक न्याय होगा )।

मेग्गी वास्तव में चीन में बने नूडल्स का ब्रांड नाम हे मगर जैसे भारत में हर अलमीरा गोदरेज होती हे वैसे ही हर शीघ्र तैयार होने वाला नूडल्स मेग्गी कहलता हे । इस ब्रांडिंग में बेचलर्स का योगदान अविश्मरणीय हे । सुबह का नाश्ता हो या शाम के स्नैक्स या फिर उल्लूरुपी रात्रिचर बेचलर्स की उदरपूर्ति का साधन ,सभी भूमिकाओं में मेग्गी ऐसे समा गयी हे की बेचलर जीवन की कल्पना ही अधूरी हे । इसके उलझे और बेतरतीब नूडल्स स्वयं ही बेचलर की जिंदगी के समानार्थी प्रतिबिम्बक हे ।

जहाँ एक बेचलर मेग्गी के ढेर से घिरा हुआ हे वहीँ एक शादीशुदा के घर में यह उसी दिन बनती हे जब उसकी पतनी ने खाना बनाने से मना कर दिया हो । स्पष्ट हे कि वास्तविक मेग्गी प्रेमी एक बेचलर ही हे । यहाँ तक की वह दिन में तीन बार मेग्गी खाकर भी अगले दिन उसी चाव से इसका नाश्ता करता हे । वाकई ये उसके एकनिष्ठ प्रेम का ही प्रतीक हे ।

मेरे खयाल से मेग्गी के एड में बच्चों के बजाय बेचलर्स को दिखाया जाना चाहिए क्योंकि वे ही वास्तविक मार्किट हे मेग्गी के । अब अगर आगे से आपको मेग्गी के एड में बेचलर दिखाई दे तो उसमें मेरा ही योगदान माना जाये । (क्रमशः)

एक बेचलर की कथा : भाग 2

एक बैचलर की कथा : भाग 2

डिस्क्लेमर : यह व्यंग्य लगभग सभी बैचलर की जिंदगियों से प्रेरित हे, अतः प्रत्येक बैचलर इससे स्वयं को आहत ही माने ....

बैचलर की जिंदगी में दूसरा महत्वपूर्ण हिस्सा उनकी किचन का एक शादीशुदा की किचन से पूरी तरह भिन्न होना हे । शादीशुदाओ की किचन के विपरीत बैचलर की किचन कई बार चलायमान हो जाती हे । सुविधानुसार उसे कहीं भी उठाया और रखा जा सकता हे । मोड्यूलर किचन के जमाने में मोबाइल किचन की नवीन खोज बचेलोरों के अथक शोध का  ही परिणाम हे ।

इस किचन में जरुरत से ज्यादा एक भी सामान नहीं पाया जाता जैसे कुछ इक  थाली , 2 से 4 चम्मच एवं कुछ कप और अन्य छोटे बर्तन । भारतीय अर्थव्यवस्था के कम संसाधनों में बेहतर प्रबंधन के फॉर्मूले का ज्वलंत उदाहरण हे ये किचन । बर्तनों की भूमिका यहाँ स्थायी नहीं वल्कि आगंतुकों के हिसाब से बदलती रहती हे । कढ़ाही कई बार थाल के समान खाना खाने में प्रयोग हो जाती हे तो कई बार चमचे का प्रयोग चम्मच के तौर पर भी किया जाता हे। एक पोस्ट पर बैठे व्यक्ति से कई पोस्टों का काम कराने का कॉर्पोरेट प्रबंधन का सूत्र शायद इन्ही किचनो से प्रेरित हे ।

यहाँ पर मिठाई के डिब्बे , कोल्डड्रिंक की बोतलों का जैसा उत्तम प्रयोग देखने को मिलता हे यदि उसे अपना लिया जाए तो स्वच्छ भारत अभियान एक माह में ही पूरा हो जाये (अतिशयोक्ति अलंकार का उदहारण :ख़ास हिंदी के छात्रों हेतु ) । पुराने आधे टूटे कपों का संकलन आपातकालीन परिस्तिथि में चाय परोसने हेतु भी रखा जाता हे (डिजास्टर मैनेजमेंट )।

इस किचन के खाने की शान हे आलू ,चावल एवं दाल । जब जब भी बैचलर अपने महत्वपूर्ण आलस नामक गुण के कारन सब्जी नहीं ला पता तब तब वह आलू के परांठे , खिचड़ी या दाल बनाके काम चलता हे । और इस पर दम्भ ये कि वास्तव में वो ऐसा ज्यादा तड़क भड़क के खाने में विशवास न रखने के कारन करता हे और कई बार तो दोस्तों के सामने अपनी इस आदत को गांधीजी के दर्शन से जोड़कर कह देता हे क़ि वह जीने की लिए खाता हे नाकि खाने के लिए जीता हे ।
इस प्रकार एक बैचलर की किचन एक शादीशुदा की अतिव्यवस्थित किन्तु बोरिंग किचन को चिढ़ाती हुयी जीवन के बैचलर दर्शन को व्यक्त करती हे ।   (क्रमशः)

Tuesday 23 June 2015

एक बेचलर की कथा

एक बैचलर की कथा :

आज कुछ ऐसा लिखने की कोशिश करूँगा जो की ज्यादातर लड़को की दास्ताँ रही हे । ये दासतां थोड़ी लंबी होगी, तो शायद कई भागों में ही लिखूं ।

आज शुरू करता हु एक बैचलर और घर से दूर रह रहे लड़के के कमरे की व्यथा से । सच कहूँ तो इनके कमरे की कथा नहीं व्यथा ही हुआ करती हे । वो क्या हे न कि शुरुआत में तो सारी वस्तुएं बड़ी सजा के रखी जाती हे मगर जैसे ही एक हफ्ता बीता , उन वस्तुओं को खुद नहीं पता होता कि वे आखिर हे कहाँ ? फिर कोई 6 महीने बाद ही इनको फिर से ठिकाने लगाया जाता हे और एक हफ्ते बाद फिर वही व्यथा । और उस पर दुःख ये कि कई चीज़े तो साल भर बाद ही किसी कोने या बिस्तर में दबी मिलती हे , इनमे से कई को लेकर तो दोस्तों पर इन्हें ग़ुम करने का इल्जाम भी लगाया जा चूका होता हे । खैर इसी वजह से इन खोयी हुयी वस्तुओं की कई सारी प्रतिलिपि आपको इस व्यथित कमरे में मिल जाएँगी ।

कमरे में प्रवेश करते ही स्वागत होता हे जूते चप्पलों के ढेर से , जो शुरुआत में ही रंग बिरंगी शक्लो से आने वालों को मुह चिड़ाते हे और कुछ तो उलटे मुह होकर आगंतुक को न घुसने की चेतावनी भी देते हुए लगते ह । पायदान भी होता तो हे मगर वो खुद ही टनो मिटटी के ढेर में दबा अपनी वास्तविक शकल को तरस रहा होता हे । और महीने के ज्यादातर दिनों में धूल की एक हलकी रेशमी परत सारे कमरे की आभा को बड़ा रही होती हे ।  ऐसा नहीं हे की बैचलर सफाई नहीं करता , मगर वो सफाई का वास्तविक आनंद लेने को कई कई दिन तक इस कार्यक्रम को स्थगित करता हे  ताकि जब कई दिन बाद सब साफ़ दिखे तो लगे की मानो यहीं जन्नत हे (कश्मीर टूर कमरे पर करने का आसान उपाय हे ये )।

अगर बैचलर पढ़ाई करता  हे तो कमरे का सबसे बड़ा आकर्षण हे एक मेज और कुर्सी । मगर इसका इस्तेमाल पड़ने में कम  साजो सामान रखने में ही ज्यादा होता हे । मेज तो मानो ड्रेसिंग टेबल,पूजाघर, किताबघर और ना जाने कितने मल्टी परपस कार्य करती हे तो कुर्सी पर तौलिये से लेकर गंदे कपडे तक सभी झूला झूलते रहते हे । हाँ ये अलग बात हे की जिस दिन पड़ना होता हे उस दिन ये  सारे सामान बिस्तर की भेट चढ़ा दिए जाते हे ।वास्तव में मेज कुर्सी के ये सब सामान कमरे के सबसे यूज़फुल मगर लावारिस सामान हे जिनक कोई एक ठिकाना नहीं हे । (क्रमशः)

डिस्क्लेमर : इस व्यथा को मेरी आदतों से जोड़ना या न जोड़ना आपके स्वविवेक पर निर्भर हे

व्यंग्य :मैं आहत हूँ

सुबह उठते ही बहुत आहत सा महसूस कर रहा था आज . समझ नही आ रहा था कि आख़िर हुआ क्या हे. ना पेट मे दर्द था नाही सिर मे , यहाँ तक की बुखार का भी नामोनिशान नही था .बहुत ज़ोर देने पर भी समझ नही आया की आख़िर आहत हूँ तो हूँ क्यों ?
    
    खैर इसी आहतपूर्ण अवस्था मे ही मैने अख़बार पलटना शुरू किया . लेकिन जैसे ही मुख्य पृष्‍ठ पर नज़र डाली ही थी कि  देखा की कुछ लोग किसी फिल्म के दिखाए कॉंटेंट से आहत थे तो वहीं कुछ लोग किसी कॉमेडी शो की रोस्टिंग से आहत थे .कुछ पेज और पलटते ही देखा एक धार्मिक समुदाय दूसरे समुदाय से गंभीर तौर पर आहत हे तो वही दूसरे समुदाय का कहना हे कि वह पहले से ही खुद इतने आहत हे की किसी को क्या आहत करेंगे.? इन्ही सबके बीच आगे बढ़ते ही पढ़ने को मिला की एक राजनीतिक पार्टी समय समय पर लगने वाली आर टि आई एवं केग की रिपोर्ट्स के कारण ढंग से करप्ट ना होने के कारण आहत हे . तो वहीं विकसित देश विकाशशील देशों के विकास से आहत नज़र आए . यहाँ तक की हमारा पड़ोसी देश क्रिकेट मेच मे बुरी तरह हारने से आहत था और उनका कहना हे कि अगर थोड़ा कम रन से हराया जाता तो शायद वह
आहत नही होते .
   
   इन सबके बीच मुझे लगने लगा की आज मैं अकेला आहत नही हू बल्कि सारे जहाँ मे आहत होने की होड़ मची हे . मगर इस झुटि तसल्ली मे मेरे सामने नया सवाल था कि आख़िर मैं क्यू आहत हू ? बहुत खोजने पर भी ऐसा कोई कट्टर भाव ना मिल पाया जिस के कारण मे आहत हुआ हू . तब मुझे लगा की शायद मैं इन सबके बात बात पर आहत होने से आहत हू , मगर फिर याद आया कि मैं कोई कबीर बुद्धा या गाँधी की श्रेणी का तो हू नही जो इस गंभीर मगर मेरे लिए तुच्छ बात से आहत हो जाता . तब अंत मे समझ आया कि मैं वास्तव मे इस आहत होने की दौर मे खुद के आहत ना हों पाने से ही इतना आहत था .

Monday 22 June 2015

विचार: दहेज़ का गणित

किसी भी वस्तु की बाजार में कीमत दो कारण से होती हे..या तो माँग मे बढ़ोत्तरी हो जाए या फिर ग्राहक उस वस्तु की बाजार में अनावश्यक ज़्यादा कीमत चुका रहे हो.

अब अगर इस आधार पर दूल्हे की बिक्री को समझा जाए तो पहला कारण निरस्त हो जाता हे क्यूंकी लिंगानुपात मे लड़के ज़्यादा हे लड़की कम तो माँग मे लड़के नही लड़कियाँ ही ज़्यादा हे...मगर दूसरा कारण ज़्यादा सटीक हे क्यूंकी लड़की के घर वाले आजकल जिस तरह कीमत चुकाने को तैयार रहते हे उसी ने दूल्हे नामक वस्तु की कीमत बड़ा दी हे

पाप

चाह थी इंसान बने रहने की ,
तो कर गया कुछ पाप मैं भी ,
बुत बनके मंदिर में रहने की ,
शायद हिम्मत मुझमे नहीं थी....

करेंगे दुनिया के लोग मेरे पापों का
हिसाब ,
खुद के पापों को भुलाकर ये करेंगे
मेरा न्याय

सच ही तो हे पापी ही पाप को
माप सकता...
जो हो निश्छल भगवान ,उसमे न्याय की
क्षमता कहाँ थी

कविता : सिर्फ तेरी याद में -1

शेष बची यादें हे आज ,
 तेरे वो सारे उपहार ।
तू नहीं तेरी आवाज नहीं ,
 सिर्फ शेष रहे ये ही अहसास।

तेरी उस दी घडी की टिकटिक ,
  मनो कुछ मुझसे कहती हे ।
प्रत्यक्ष नहीं तू साथ मेरे पर
  इस आवाज में तू ही रहती हे ।

तेरा वो स्पर्श मुझे ,
  नसीब नहीं अब छूने को ।
कानो की तेरी बाली कहती
  मत रो शेष नहीं कुछ खोने को ।

तेरा वह कोफी का मग
 फोटो हे जिस पर मेरी ।
दिया हुआ तेरा छल्ला ,
 ह्रदय की छाप जिस पर तेरी ।

सब कहते हर रोज यही ,
 तू आज भी मेरे साथ यहीं
मेरी आँखे जो ढूंढे तुझे
  दिखती हर ओर छवि तेरी ।

वो दी हुयी तेरी डायरी ,
 लिखने को मुझको कहती हे ।
आँशु मेरे सब सूख चुके ,
बस कलम ही मेरी रोती हे ।

जीवन कल तक बाग़ सा था
 उसमे आया क्यों हाहाकार ।
शेष बची यादें हे आज ,
 तेरे वो सारे उपहार ।

व्यंग्य : प्रेम का समाजशास्त्र

अरे सुना तुमने गुप्ताजी की लड़की को प्यार हो गया हे किसी लड़के से , कहती हे उसी से शादी करेगी ...अब बताओ ये इसीलिए जाती थी क्या कॉलेज पढ़ने ,कि नेन मटक्का कर सके ।। आजकल तो इन लड़कियों को फिल्मों का खुमार चढ़ा हे बस ।।।उह्ह्ह"
 -शर्मा आंटी का कमेंट न. 1  उसी छोटे शहर में रहने वाली लड़की के लिए ....

"अरे सुना तुमने मेहरा जी की लड़की ने अपनी ही कम्पनी के लड़के से डेल्ही में शादी कर ली हे , बताओ गजब ही कर दिया ...वैसे ठीक भी हे ..अब देखो दोनों एक साथ नौकरी करते हे और एक दूसरे को समझते भी हे फिर लड़की अब इतना पढ़ी और काबिल हे तो अपने मन से जीवनसाथी चुनने का हक़ तो हे ही न "
- शर्मा आंटी का कॉमेंट न. 2 बड़े शहर में जॉब करने वाली लड़की के लिए 

प्रेम का कच्चापन

इश्क़ जब हो जाये धूमिल,
तो याद आती नहीं..
कि कमबख्त याद लाने को
भी याद करना पड़ता हे....

कल तक याद आती थी कि
उस बहाने संभल जायेंगे हम ...
कि अब तो याद के आते ही,
डर के संभल जाते हे हम....

लगू जो भूलने तुझको
की झट से याद करता हू ..
की तूझे भूलने से भी ,
तो साला दिल ये डरता हे..

कविता : अंतर्द्वंद

मेरे दर्द का अब ये आलम हे ...
की सीने में छिपा के रखते हे...
कितना छलकता कितना संभालता..
ये पता भी हे और पता नहीं ....

मेरी हंसी में जो दर्द उभरे ...
हँसते होंठो से जो दर्द छलके ...
उसने कितना इन्हें समझा हे ...
ये पता भी हे और पता नहीं ...

कई दफा जो रोकर हँस दिए ....
लोगो ने न जाने क्या जाना ...
क्या उसने भावों का भाव लगाया ...
ये पता भी हे और पता नहीं ...

पता होने और न होने की जो ...
ये अजीब सी कश्मकश हे मेरी ...
कितना कुछ इसमें उलझा हूँ मैं...
ये पता भी हे और पता नहीं ....

कहानी : निस्वार्थ चिंता

कहानी : निस्वार्थ चिंता

सुबह के समय आज वो सैर पर तो निकला मगर बहुत ही अनमने मन से ..कई दिन से तो वो कमरे से भी बाहर नहीं निकला था .. न जाने कितनी सारी  बातें   उसे खाए जा रही थी ..जब एक साथ कई सारी चीजें  दिमाग में हो तो शायद व्यक्ति यह तय नहीं कर पता कि वह क्यूँ परेशान हे ..पिछले कुछ दिनों से ऐसे ही किसी असमंजस का शिकार था वह ..

   खैर आज निकल गया था कमरे से बाहर ..मगर दिमाग का क्या करता वह तो कही फिर छुट गया था , उन कई सारी परेशानियों के बीच ..दिमागी गुत्थमगुत्था में वह आगे बढता जा रहा था और आसपास के हर माहौल  से बेखबर था ..कदम कुछ ऐसे बढ़ रहे थे मानो उन्हें किसी मंजिल की तलाश नहीं थी ..वो सिर्फ बढ़ रहे थे ..अंतहीन, दिशाहीन, सबसे विमुख ...

  अभी कुछ दूर ही निकला था वो इस सफ़र पर कि अचानक एक आवाज ने उसके चिंतित मन को बाधित किया ..ये आवाज करीब दस साल के एक बच्चे की थी जो उससे चाय के पैसे मांग रहा था ..शकल से बेहद गरीब और उजाड़ सा लग रहा ये बच्चा अपनी आँखों में एक अजीब सी कातरता लिए हए था ..उसने आज बिना कुछ कहे उसे 5 रूपये दे दिए थे..आम तौर पर वह मना  कर देता था ..मगर आज अपनी चिन्ताओं  में उसे उस बच्चे कि परेशानी सच्ची नजर आ रही थी ..कुछ कदम आगे और बढ़ा ही था कि एक अधेढ़ उम्र के आदमी को ठेले पर बोरे लादते हुए उसने देखा ..उस आदमी कि कमजोर हड्डिया उसका साथ कभी भी छोड़ सकती थी , मगर परिवार कि भूख ने शायद उन हड्डियों को जोड़े रखा था

...कदम थोडा सा रूककर फिर आगे बढ़ने लगे थे ,,अब न जाने क्यों उसकी चिंताओं ने कोई दूसरा रुख ले लिया था ...सड़क किनारे कूड़े बीनने वाले , फुटपाथ पर सोने वाले आज उसे नजर आ रहे थे ...ऐसा नहीं था कि वह और दिन वहां  नहीं होते थे ..मगर आज उसे हर परेशान और दुखी व्यक्ति साफ साफ नजर आ रहा था ..शायद इसलिए कि आज वह खुद कही अकेला सा था ..

   इन सबके बीच अब वो वापिस लौटने लगा था ..अपने कमरे की और..परेशनिया और चिंताए  अभी भी थी ..मगर इस बार वो सिर्फ अपनी नहीं थी ..वो चिंताए अब स्वार्थ से निस्वार्थ की और बढ़ चुकी थी ...मन पर बोझ तो था मगर अब उसका ध्येय कुछ अलग था ...कदमों में चाल तो थी मगर अब वो पहले कि तरह दिशाहीन , अंतहीन नहीं थे,,अब वो अपनी समस्याओं के कारन सबसे विमुख नहीं था बल्कि अब वो सबकी परेशानियों से सम्बद्ध हो अपनी चिंताए भुला चूका था ...

-समाप्त