Saturday 28 November 2015

कटाक्ष :कालिदास तुम्हारी हत्या जरुरी थी

कटाक्ष :कालिदास तुम्हारी हत्या जरुरी थी 

आज के समय में जब हर जगह सहिष्णुता और असहिष्णुता की एक बहस सी छिड़ी हे तब मुझे लगता हे कि इसका जबाब इतिहास में ढूँढना बहुत जरुरी हे .. सबसे बड़ा सवाल तो ये हे कि आज के लेखकों और बुद्धिजीवियों में इतनी हिम्मत ही कहाँ से आ गयी हे कि वो बिना सोचे समझे हमारी संस्कृति और धर्म का उपहास उड़ा देते हे ...कलबुर्गी जैसे नास्तिकों और पेरूमल मुरगन जैसे लोगों को कम से कम इतनी समझ तो होनी ही चाहिए कि ये भारत हे जहाँ संस्कृति पर सवाल नहीं झेला जायेगा ...मगर तब भी इतनी हिमाकत ? आखिर क्यूँ और कैसे ?

बहुत सोचा तब एक ही जबाब आया कि शायद प्राचीन लोग हद से ज्यादा सहनशील थे , कुछ ज्यादा ही ...वरना कालिदास आखिर जिंदा कैसे रह गए ? जिस कालिदास ने 'कुमार संभव' जैसा बेहद अश्लील साहित्य लिखा और वह भी भगवान् शिव को विषय बनाते हुए ,उस कालिदास को उस समय के लोगो ने न तो जान से मारा और उल्टा उसे महानता के शिखर पर बैठा दिया ...हालाँकि सुना हे  इसके लिए उनकी तब भी  आलोचना कि गयी थी मगर तब भी मात्र आलोचना से क्या होता ...उल्टा उन्हें उनकी अन्य रचनाओ के कारन महान लेखक साबित कर दिया गया ...कमाल तो ये हे कि ये बेहद अश्लील साहित्य कई यूनिवर्सिटी में पोस्ट ग्रेजुएशन में पढाया भी जाता हे ...मेरे हिसाब से आज के समय में इन नए लेखकों को देश में असहिष्णुता बढाने  से रोकने के लिए कालिदास तुम्हरी हत्या जरुरी थी ...

उस समय कि पीढ़ी की इस सहनशीलता ने आज के दौर में सहनशीलता के रक्षकों के सामने बड़े ही असहनशील प्रश्न खड़े कर दिए हे ...बे बेचारे जितना इन लेखकों को रोक रहे हे उतना ही कालिदास जैसे लेखको  की  घोषित महानता इनको प्रेरित करती हे कि वह हमारी पवित्र संस्कृति पर सवाल उठाये ...काश कि तुम्हे तब मार दिया होता तो ये सब आज इतने मुखर न हो पाते ..काश कि तुम आज ये सब लिखते तो तुम कालिदास नहीं कलबुर्गी बना दिए जाते ...सच में कालिदास तुम्हारी हत्या जरुरी थी ...

Sunday 22 November 2015

कविता :चोट

कविता : चोट 


अधिक नहीं बस याद यही ,
कुछ हे कचोटता मुझे ,
क्या हे ये भी शायद जानता ,
मगर बताना भी बस ,
बढ़ाना होगा उस कचोट को ,
या शायद बह जाना होगा उसका .....


मगर सच हे कि ,
इस घोर असमंजस में ,
मैं खुद को तडपाना ,
सजा देना चाहता हू ...

कि शायद किसी तरह मेरी वह कचोट ,
मेरे मन पर बना दे ,
एक ऐसा निशां चोट का ,
कि याद रहे मुझे सदा ,
क्या था जो था कचोटता ,
क्यों था जो था कचोटता ....

नहीं मैं कोई  दार्शनिक नहीं ,
हु तो बस साधारण इंसान ,
जिसने भी की हे कई गलतियाँ,
सबकी तरह ,
जी रहा जैसे कुछ किया ही नहीं ....

इन गलतियों और चोटों का हिसाब नहीं रखा मैंने ,
मगर जब भी दी किसी और को चोट मैंने ,
तब बना लिया दिल पर खुद के
एक गहरा निशान चोट का ....