Monday 22 June 2015

कविता : अंतर्द्वंद

मेरे दर्द का अब ये आलम हे ...
की सीने में छिपा के रखते हे...
कितना छलकता कितना संभालता..
ये पता भी हे और पता नहीं ....

मेरी हंसी में जो दर्द उभरे ...
हँसते होंठो से जो दर्द छलके ...
उसने कितना इन्हें समझा हे ...
ये पता भी हे और पता नहीं ...

कई दफा जो रोकर हँस दिए ....
लोगो ने न जाने क्या जाना ...
क्या उसने भावों का भाव लगाया ...
ये पता भी हे और पता नहीं ...

पता होने और न होने की जो ...
ये अजीब सी कश्मकश हे मेरी ...
कितना कुछ इसमें उलझा हूँ मैं...
ये पता भी हे और पता नहीं ....

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