Tuesday 23 June 2015

व्यंग्य :मैं आहत हूँ

सुबह उठते ही बहुत आहत सा महसूस कर रहा था आज . समझ नही आ रहा था कि आख़िर हुआ क्या हे. ना पेट मे दर्द था नाही सिर मे , यहाँ तक की बुखार का भी नामोनिशान नही था .बहुत ज़ोर देने पर भी समझ नही आया की आख़िर आहत हूँ तो हूँ क्यों ?
    
    खैर इसी आहतपूर्ण अवस्था मे ही मैने अख़बार पलटना शुरू किया . लेकिन जैसे ही मुख्य पृष्‍ठ पर नज़र डाली ही थी कि  देखा की कुछ लोग किसी फिल्म के दिखाए कॉंटेंट से आहत थे तो वहीं कुछ लोग किसी कॉमेडी शो की रोस्टिंग से आहत थे .कुछ पेज और पलटते ही देखा एक धार्मिक समुदाय दूसरे समुदाय से गंभीर तौर पर आहत हे तो वही दूसरे समुदाय का कहना हे कि वह पहले से ही खुद इतने आहत हे की किसी को क्या आहत करेंगे.? इन्ही सबके बीच आगे बढ़ते ही पढ़ने को मिला की एक राजनीतिक पार्टी समय समय पर लगने वाली आर टि आई एवं केग की रिपोर्ट्स के कारण ढंग से करप्ट ना होने के कारण आहत हे . तो वहीं विकसित देश विकाशशील देशों के विकास से आहत नज़र आए . यहाँ तक की हमारा पड़ोसी देश क्रिकेट मेच मे बुरी तरह हारने से आहत था और उनका कहना हे कि अगर थोड़ा कम रन से हराया जाता तो शायद वह
आहत नही होते .
   
   इन सबके बीच मुझे लगने लगा की आज मैं अकेला आहत नही हू बल्कि सारे जहाँ मे आहत होने की होड़ मची हे . मगर इस झुटि तसल्ली मे मेरे सामने नया सवाल था कि आख़िर मैं क्यू आहत हू ? बहुत खोजने पर भी ऐसा कोई कट्टर भाव ना मिल पाया जिस के कारण मे आहत हुआ हू . तब मुझे लगा की शायद मैं इन सबके बात बात पर आहत होने से आहत हू , मगर फिर याद आया कि मैं कोई कबीर बुद्धा या गाँधी की श्रेणी का तो हू नही जो इस गंभीर मगर मेरे लिए तुच्छ बात से आहत हो जाता . तब अंत मे समझ आया कि मैं वास्तव मे इस आहत होने की दौर मे खुद के आहत ना हों पाने से ही इतना आहत था .

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