Sunday 20 November 2016

कृष्णा-अर्जुन संवाद : 4

कृष्णा-अर्जुन संवाद : 4
अर्जुन : प्रभु एक लड़के और लड़की की दोस्ती और प्रेम में क्या अंतर हेै ? न जाने क्यों मुझे तो लगता है क़ि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलूँ है क्योंकि दोस्ती कई बार प्रेम में बदल जाती है तो वहीँ प्रेम बिना दोस्ती संभव ही नहीं लगता ?
कृष्णा : प्रश्न बहुत हद तक स्वयं उत्तर समेटता है पार्थ किन्तु फिर भी एक बहुत बड़ा अंतर है ।
अर्जुन: वह क्या प्रभु ?
कृष्णा : जब तक सिर्फ दोस्ती रहती है तब तक आप हर बात को आसानी से कह सुन लेते हो , वही जब वो प्यार में बदल जाती है तो कुछ बातें आप कभी भी आसानी से नहीं कह सकते ।
अर्जुन : ये तो बड़ा उल्टा सा लग रहा है प्रभु सुनने में ?
कृष्णा : किन्तु पार्थ ,अपवादों को छोड़ दें तो लगभग ऐसा ही है क्योंकि दोस्ती में अनावश्यक अधिकार का भाव नहीं है , जबकि प्रेम का तात्पर्य ही एक दूसरे पर अधिकार है ।
जब अधिकार आता है तो अपेक्षाएं भी बढ़ जाती है । और तब इन अपेक्षाओं को निभाते रहने के लिए ये आवश्यक हो जाता है कि सब न कहा जाए ।
(कृष्णा थोडा रुके और मुस्कुरा कर बोले )
जानते हो जितना खुल कर तुमसे बात कर पाता हूँ उतना राधा या रुक्मिणी से भी नहीं कर सकता कभी । अब उन्हें सब बात बताऊ न, तो शायद मेरा आधे से ज्यादा समय रुठने मनाने में ही निकल जायेगा पार्थ ।
अर्जुन : (ठहाका लगाकर हंसे) समझ गया प्रभु , दोस्ती और प्रेम में शायद बस अपेक्षाओं का अंतर है । दोस्ती निस्वार्थ भाव है ,प्रेम में अधिकार एवं गहरी अपेक्षाओं का स्वार्थ है ।
कृष्णा : हम्म , समझदार होते जा रहे हो पार्थ ।
चलो अब घर चलो वरना सुभद्रा को जबाब देते रहोगे कि कहाँ इतना समय लगा दिया ।
(दोनों हँसते हुए घर की ओर बढ़ गए )

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