Sunday 20 November 2016

फेसबुकी क्रांति

क्रांति मांगती है
कोयले सी सुलगाहट,
ज़ो धधकती रहती है
भीतर सीने में कहीं चुपचाप ,
क्रांति की तैयारी में
हाथ होता है लंबी चुप्पी का,
वो नतीजा होती है
गहरे मनन और चिंतन का,
महज़ आवेग नहीं
नतीजा है लंबी तैयारियों का,
किन्तु अब क्रांतियां हैं ठन्डे बस्तों में
क्योंकि सीने की चिंगारियां
बुझा दी जाती है अक्सर
फेस बुक की चंद पंक्तियों में ।

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